"यह मजदूर पर नहीं
'मजदूर की कविता' है
बहुत पास आकर सुनना
विषाणु ने मानव की हैसियत को रौंदा है,
हाड़-मांस का 'ईगोस्टिक' मिट्टी का लौंदा है.
गई गुजरी से लेकर 'वेल-सेटल्ड-लाइफस्टाइल'
थरथरा रही है,
पोंगी 'आईडियोलॉजी' की इमारत
भरभरा रही है.
मलबों में यहां लोग नहीं,
सोचने विचारने के
तरीके दबे हैं,
पूरा भारत एक शून्य है
और
उसकी गणित के नीचे
उस सरीखे दबे हैं.
जिनकी संज्ञा है - मजदूर,
और विशेषण है- मजबूर .
धमनियों में अर्थव्यवस्था,
संस्कृति में भूगोल,
माथे पर साहित्य,
लकीरों में इतिहास,
और
दिनचर्या में संविधान
लादे हुए,
खिसियाते हुए,
बतियाते हैं राजधानी से ,
और 'पॉलिटिक्स' के शिकार होते हैं बड़ी आसानी से.
ताज्ज़ुब है
उसी पर मेहंदी रचाते हैं
जिस हाथ से तमाचा खाते हैं.
यह लोकतंत्र मजबूरी का है
और देश
मजबूरों का है.
हाशिये से 'मुख्य पृष्ठ' पर कब आएंगे यह सवाल
मजदूरों का है.
जो
राज्य की सीमाओं पर खड़े होकर
आधार कार्ड में लिखे 'भारतीय' शब्द को घूर रहे हैं ,
ये वही हाड़-मांस के लोग हैं जो 'मेनिफेस्टो' में नूर रहे हैं .
फिलहाल
छोड़ दिया गया बेतरतीब
रात-सुबह
सड़कों पर
भटकने के लिए,
बद्सलूक नामचीन शहर की आँख में
खटकने के लिए.
घर-गृहस्थी लादे हैं सर पर,
चलने को है सैकड़ों मील.
लपके बदइंतजामियों का चीता,
दुश्वारियों की झपटे चील .
सडकों से कहाँ गायब हो गए ?
आवाजाही के सूत्र-
क्या पानी पिलाने वाली घोषणाओं ने छोड़ दिया है पीला मूत्र ?
एक-एक घर आगे बढ़ाकर
वजीर-ए-आला
जिंदा रहते हैं
अब समझ में आया
शतरंज में "पैदल" को "पैदल"
क्यों कहते हैं ?
बिन पेंदी का डिसीजन
दांत कोलता हुआ,
खजूर की छाँव में है,
बेमुरव्वत को दिखा नहीं कि
'कमाऊ' शहर में और उसका परिवार गाँव में है.
गली गूचों में
खाली कनस्तर चीख रहे हैं
मुझको थोड़ा राशन दो,
जिनके मगज़ में सिफ़र नहीं है या फिर उनको शासन दो.
ये
कैसा खालीपन,
कैसी जड़ता है,
किसी को फर्क नहीं पड़ता है.
जो
लाचार है उसे उसकी
मौत मरने दो,
बाकियों को 'सोशल मीडिया' पर
उल्टियाँ करने दो.
मुँह खोलकर एक साथ सौ गालियाँ देना चाहता है,
सरकार भी जनखों में शुमार हुई,
जनमत तालियाँ देना चाहता है .
बंद व्यवस्था
में हर फँसा हुआ आदमी
रूखा है,
तंगी की चाबुक से छलनी दिहाड़ी
भूखा है .
'टोटल लॉक डाउन'
होने जा रहा है,
इसका 'ईको' अब समझ आ रहा है.
नुक्कड़ों के भुच्च चुरकटों की
बकैती निकली,
तुम्हारी 'वाक़ लीला' मूक-बधिर के लिए
डकैती निकली.
न ईवनिंग वॉक है
न मॉर्निंग वॉक है
ये सियासत के लिए "वार्निंग वॉक" है.
जिंदा पार्सलों की होम डिलेवरी हो जाने दो
फ्री में
इनकी जड़ें बहुत गहरी हैं, कहीं और पनप जाएँगी
'इति श्री' में .
समझौता होगा
'क्वालिटी' से,
हाथ धोना पड़ जाएगा
'पालिटी' से...
.............................................
जय हिन्द


2 Comments
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteपैदल को पैदल कहना
जिन्दगी सियासत में फँसा रहना
मेनिफेस्टो के रहनूमा
चीर काल से क्रन्दन सहना
ये
ReplyDeleteकैसा खालीपन,
कैसी जड़ता है,
किसी को फर्क नहीं पड़ता है.
जो
लाचार है उसे उसकी
मौत मरने दो,
बाकियों को 'सोशल मीडिया' पर
उल्टियाँ करने दो.
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