तुम्हारे स्पर्श से उपजा होगा
संवेदना का ज्वार
जो अब तक मेरे ज़हन में उछाल मारता है
इसी की हिलोरें
मेरे ही तट को भिगाती हैं
मेरे ही पाँव भीगते हैं
थपेड़े तुम्हारी ऊर्जा के
लेकर थोड़ा दूर जाके
हम
कोशिशों में भरते रहते हैं दम
ताकि
तुम पा सको
मेरे निमित्त तुम्हारी ही प्रसिद्धि
असल में तुम्हारी ही सिद्धि
ठूँसती है
समंदर सी धारिता
प्रण को प्राणों पे धारण किया,
हमने तो बस उच्चारण किया.
तुम गूँजते रहे मंत्र सा,
मैं संचालित रहा तंत्र सा.
इक
खाका नुमा
मेरी हैसियत
जिसे हल-हलंत
पैमाना तुमने दिया
हल्के-हल्के
जो
हल्के हाथों से
मुझमें समाया
वही जोर
हर ओर
मुँह बाए खड़ा है ,
मुझे नींद बड़ी मिली
इसलिए मेरा सपना बड़ा है .
तप दिखा मेरा
लेकिन
तपे तुम थे,
मैं आगे पहुँचा
डग-डग
नपे तुम थे .
सुप्त वेदना के वादन का
जरिया बना हूँ ,
नज़ाकत तुम्हारी नजर में थी
इसलिए मैं नजरिया बना हूँ .
मुझे मिली वाहवाही
तुम्हारी पूँजी है ,
पनप न सकी जो
हालात के मारे वो
आवाज़
मेरी चट्टानों से गूँजी है.
इस स्थिति के प्रतिनिधि
सूत्रधार-पुरोधा तुम हो
मैं कायम रहूँगा
तुम्हारे तेज का
अदना सा 'वाद' बनके
मस्तक की पीड़ा को सुन्न कर
गूँजूंगा 'नाद' बनके
एक कम्पन्न सा,
आज मैं हूँ
सम्पन्न सा.
कभी
भ्रम के भँवरे मंडराए
जो गए ठिठक तो
किया तटस्थ ,
था जहाँ
वहीँ इंद्र हो गया
जगह हो गई इन्द्रप्रस्थ .
स्वांसों के कम्पन्न में स्वर गूँजे
मन-मृदंग को कसा त्वरित
ठीक जगह पटकी हथौड़ी
ताल हो गया
लय हो गयी ,
तत्क्षण मेरी जय हो गई .
माँ
मस्तक पर मुकुट धर गया,
मैं
निशंक,अपराजित सा
वापस घर गया .
तिमिर-तमस में
खद्योतों सी तेरी अनुभूति .
शत-शत नमन
मेरे भव, भाव,विभाव,विभूति .

अनायास ही फूटा
एक सोता,
बिखर जाता
यदि
तुम्हारा तट नहीं होता.
तुमने मुझको बांधा, साधा
जरूरी ढाल दी बहने को,
बना दिया धारा
उसी धारा में रहने को.
बदलते मौसमों की मार झेली
मुझे अविरल रखा,
समतापी बनाके
गरम-ठण्डी हवाओं को चखा.
अनगिनत गुर
बिना गिनाए
बूँद-बूँद मुझमे सहेजे,
साँंसों से ठेल-ठेल के प्रवाह भेजे.
पत्थर को पलटाने का
टापू से टकराने का
नियंत्रण सीधे में
मोड़ में बलखाने का
नावाजा तरीका,
ताकि एक दरिया बन सके
हम सरीखा.
आज मैं दरिया हूँ
नामी-गिरामी
नहीं ! मैं तो था पूर्ण विरामी
तुमने बनाया
अल्प विरामी
तुम्ही हो मेरे भीतर
अविरामी.
तुम चलते हो
मैं चलता हूँ,
जाने-अन्जाने
नजर-अंदाज किए गए
तुम्हारे संकेतों से पलता हूँ.
हाँ
आज भी मेरे चरण
तुम्हारी उँगली की नाॅेक से
दिशा पाते हैं,
क्योंकि पता है
मुझे सम्भालने दो हाथ
पीछे-पीछे आते हैं.
तुम्हारी एक बूँद
मेरे अस्तित्व का दर्पण है,
मेरी बूँद-बूँद तुम्हे अर्पण है.
उवाचो
किस दिशा में जा गिरूँ,
घाटी कौन सी वो
जिसमें फिरूँ.
प्यास तुमने झेली
मुझे तर किया
मैं ‘तर’ हूूँ,
प्यासों का घर हूँ.
चले आना किसी भी मौसम में
किंचित,
हुआ पाओगे सिंचित.
तुम्हारे तटों की अमर दीक्षा हूँ,
इसीलिए सुभीक्षा हूँ.
‘तू’
न रूक
अभी और दूर जा,
कहती रही मुझसे
तुम्हारी ऊर्जा.
औरों की हस्ती
इससे वंचित थी,
जो मेरी नसों में संचित थी.
मैं तो ‘पर’ फड़फड़ाता रहा अकेला,
हवा बनके
असल में तुमने मुझको ठेला.
मैंने तो बस शंख बजाया
भोर मिली थी थाती में,
नहीं दौड़ते तो क्या करते
सांस भरी थी छाती में.
मैं तो यूं ही टिका रहा
पुख्ता था आधार,
बाजिव धातु हाथ में आ गई
मैंने कर दी धार.
मैदानों सा तुम बिछे रहे
तब जाके ऊगी लम्बी घास,
बादल थे पर बरस न पाते
पर्वत नहीं थे अपने पास.
डटे रहे तुम परबत बनके,
आन गिरे हम मनके ‘मनके’.
पढ़ा वही जो पढ़ाया तुमने
चढ़ा वहीं जहाँ चढ़ाया तुमने,
दम भरके मैं रह जाता था
बाँध के मुट्ठी लड़ाया तुमने.
तेल पिलाई तुमने लाठी,
नाम आई मेरे कद काठी.
मैंने उसको मोड़ दिया
सही राह से जोड़ दिया,
सारे रस तुम्हारे निकले
मैंने बस निचोड़ दिया.
तेरे पोषण के तलछट से
मेरे तटबद्ध हुए,
संशय के सारे फैलाव
स्थगित हुए
रद्द हुए.
तुम ही हो
मेरी मुकम्मल गति,
न तनिक न अति.

सुफल-संजीवन क्षेपित
दीर्घ सहचर
ज्ञान-विज्ञान
गर्भ के पुरोधा
हृदय संस्पर्शीय
कर बद्ध
प्रीत से उपजे
प्रीत में निखरे
पालन रहित
लालन सहित
न
मंद होगी आँच तुम्हारी.
रूप धरेगी
मेरी सत्यनिष्ठा
बनके साँच तुम्हारी.
अभीष्ट को पाने के क्रम में
जुरें,
सदा उदीयमान क्रिया
मेरे कर्मों की पूर्णाहूति
तुम्हारी लौ है
प्रेरित
अपने काज से
संचारित नसों के रस से
सदा दैदीप्यमान रखना
आनपड़े वक्त
कैसा भी
अनछुए
गुजरता रहे,
रिक्त की
पूर्ति होने तक
तुम्हारा ‘दिया’ उजरता रहे.
भावों-अभावों के दम पर,
शेष-अशेष हम पर.

हाड़-माँस की
कंडी करके
रोम-रोम से
बना भभूति,
बरबस जितने पुण्य बटोरे
भर बकौटा
दे आहूति.
अग्नि ऐसी
ज्वलित करूँ मैं,
आँख मिचैली
क्वलित करूँ मैं.
प्रत्यँञा पर मौन बनाके
दसों दिसा की तेरी तूती
रखूँ,
यज्ञ साक्षी हो जाए
स्वयमएव भेदन
बाण विभूति
शेष नहीं अब
कोई
‘तथा’
शुरू हुई मेरी अमर कथा.

माँ-बापु
के हृदय कक्ष की भित्ति
सुमी ; मेरे घर की भित्तियाँ
हर धड़कन पर कम्पित होती सीं
जिंदा हैं
मुझे इनमें रहने का एहसास
किए रहता है तुम्हारे पास
रेत-रेत तुम्हारा रोम रोम है
ईंट-ईंट हड्डी
गारा है माँस पेशियाँ
पुती चिकनई चमढ़ी तुम्हारी
ताक, तक्का
फुंदने, झूमर
पोर्च, जाली, छज्जा, हौदी
ये सब मोती मनके,
विराजे हैं, अलंकार बनके.
हवा दौड़ती है साँसों सी
जल जाल है रूधिर व्यवस्था सी,
दौड़-धूप करके तुमने छतरी तानी
अब है आराम की अवस्था सी.
ताने रखा वाद्य सा
सुरों को साधा,
गुँजाया सब माहौल
अपना ध्यान रखा आधा.
अब वक्त है पूरा जियो तुम
छतरी पर एकछत्र राज करो
राज्य को साम्राज्य बनाने
प्रस्तुत है तुम्हारा बालक,
अपने पर सहेजता हुआ
ऊँची उड़ान का चालक.
रत है
नत है
तुम-नुमा घर में घुसके,
कोई खयालातों से वाकिफ नहीं उसके.
जो भाँप जाएगा
वो काँप जाएगा
अविच्छिन्न
लय हो,
सर्वथा तुम्हारी
जय हो.

वैसे तो ब्रह्म हो तुम
और मैं शून्य
भिज्ञता की शंका में
कुछ कम कर के आंकूँ
मस्तक के पाट टांकूँ
तो
ब्रह्म मुहूर्त हो तुम
कैसे एक टक होगी मेरी मूढ़ता
तुम्हारी मूर्धन्यता से
खिलवाड़ होगी कोई स्पर्धा
अनन्यता से
सो
उगती घास हो तुम
मेरा रक्त
मेरा हाड़ माँस हो तुम
मैं
नंगे पाँव तेरी गोद में विचरता
धन्य-धन्य मेरे कर्ता, मेरे भर्ता

अविरल सत्ता
यदि
भ्रमित भी हुई महत्ता
तो
भी
ओस हो तुम
मीठी, मोती नुमा, जूड़ी
तेजस, तपोनीर, त्रियांशी
द्रवण है शुचिता
तासीर में ठोस हो तुम
हे ब्रह्म
मैं
ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर
नन्ही हरी घास पर
जमीं
धवल रजता
ओस को उठाकर
माथे पर मलता हूँ.
तुम चिर, सहचरी हो
माँ
तुम्हारी छत्र-महा छाया
में
मैं
अथक-अशंक-अडर
चलता हूँ.

उद्देश्य को
पर्व बनाके
चक्षुओं में
जीमती है
हर एक
वस्तु.
पिता सह कर बद्ध
सुस्वादु सी है मेरी माँ
शुभम अस्तु.

अंततः
माता की वाणी हूँ
और पिता का विचार.
बस इतना ही है
मेरा प्रचार.
वाणी धूमिल कर नहीं सकता
विचारों में अनर्गल भर नहीं सकता
ये जुड़ाव है
नहीं व्यभिचार.
विचार मय वाणी की धूल का चरण
‘वाणी मय विचार बनके करूँ वरण
प्राप्य हो नत
धिक लाचार
हर पाठ नया झण भंगुर सा है
नवजात मेरा अस्तित्व, अँकुर सा है
पाठशाला प्रथम
हो रस संचार
ममत्व के आँगन में फूटी सुत-दूब
पितृत्व पोषण पाती हुई खूब
लालायित, होने
सात्विक सामाचार
शुभांगिनी चलायमान
शोणित में इक संस्कृति
इक अस्थियों का पिंजर बनके
सभ्यता पैठा
नाम है मेरा
संस्कार.
सदा सर्वदा अस्ति
त्वम् मम गुरू
मेरा जीवन है
गुरूवार.
जय हिन्द
-------------------------
Kavita (kavya) is a poem or poetry. Hindi Kavita means Hindi Poem. kavyapanthika provides the best poems in Hindi, best Kavita in Hindi, The poetry of kavyapanthika is unique in feelings. Here words speak, arrangement of words knock the heart and soul. Best Hindi Kavita creat musical wave in our mind.
0 Comments
Comment ✒️✒️✒️