कृति | Kriti |


kavyapanthika






उन्माद है प्यासा इस कृति का ,
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का. 
पथ नियोजन अवसर नहीं विचारे, 
जीवट मन में धारण उन्नति का.


एक नाव थी जो नदी के पार थी 
उदास भाव निष्पलक हितू सारथी ,
कुछ लहरों का चरणों से हुआ संयोजन 
मस्तक में छींटे उठे, क्या? प्रयोजन .

बारम्बार कोलाहल हुआ फिर स्मृति का,
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का .



रश्मियाँ जैसे दमकतीं पत्तों की ओट में 
घन हो गगन में या प्रस्तर की चोट में, 
इक व्याकुलता करबद्ध दामन की तरह 
आलिंगन से ऊबी हुई झुलसी विरह .

मिलन पैंतरों से दाँव भारी निवृति का , 
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का .



अवशिष्ट की परत बिछ रही भारी
कोई दौड़ता कभी कोई करता सवारी ,
निज चिह्न पहचानूँ कैसे हूँ दोषमय 
अनिश्चय के निश्चय में अज्ञात भय .

संदेह आपद दुर्गम संचार पत्र-पत्रिका, 
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का .




लालसा केन्द्रित है सुदृढ़ आधार में 
संकल्पित रंग रेखाएँ ढलतीं आकार में, 
पूर्णता से त्रस्त अन्दर का अभाव 
है अपूर्ण बाहर किन्तु फैला प्रभाव. 

निर्माण ही अमरत्व है शून्य दृष्टि का, 
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का .



उन्मीलित आशाएँ ताकतीं भीत से 
पिष्टपेषण हो रहा बुभुक्षु अतीत से, 
निवारण उछलता गेंद सा मित्रवत 
चिर परिवर्तन है समक्ष यथावत . 

कुंठित पटाक्षेप असमय कुवृष्टि का, 
संशय रूप धरे स्वयं आवृत्ति का .

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जय हिन्द


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