
मैं खुला सीप हूँ उर्मि -मध्य
लिखता आमंत्रण की पाती
गुमनामी का इतिहास झाँकता
जल्दी आ जाओ बन थाती .
इंदु! मेरे भाव लेख पर
भाषा अपनी बिखरा दो
घूम रहे हैं अर्थ अनेकों
एक अर्थ तुम छितरा दो.
नीरस निर्जन मैदानों में अब
अश्व ह्रदय का नहीं जाता
सुगंधा तेरी परिधि में स्वयं
आ खड़ा हो बंध जाता .
श्रृंगार तुम्हारा व्यतिकरण
बुल्ले जीवन को महकाता
निशा नीड़ में विश्राम परम
दिवा चिड़िया सा चहकाता .
बड़ी हो गई आँखें मेरी
देख तुम्हें ओ हरियाली
वैभव तेरा विधु, गगन में
दर्शन है, मधु की प्याली.
सरिता सर्पण में आकर
गति संतुलित कर देना
गिरि अपक्षय यहाँ गिराकर
उपजाऊपन भर देना .
सुगंध शालिनी जीवन की
तुम बैठ रही किस कोने में
हो जाता हूँ मामूली सा
नहीं पास तुम्हारे होने में .
प्रणय-पोत का पंक्षी उड़के
बना प्रयासों की लड़ियाँ
भला कौन दिक् पाएगा
जोड़ कहाँ पाएगा कड़ियाँ .
गत कर्मों की धुंधली सूरत
हो रही है दर्पण शिथिल
अवरोधिका बनी जो प्रतिछाया
वही प्रकम्पित हिल-हिल .
है नियोजन कुछ भावों का
नाम तुम्हारे लिखा हुआ
मत खींचो तिरछी रेखाएं
नक्शा है सीधा खिंचा हुआ .
हस्तक्षेप तुम्हारा जीवन में
विस्तृत चौहद्दी ले आया
साम्य हुआ बढ़ी सौम्यता
ये श्रेय भी तुम पे आया .
पुष्ट भुजाएं पोषण पाकर
पुष्टातिपुष्ट हो चली हैं
लावण्यमय हो मांसल गुत्थे
मिश्री की वजनी डली हैं .
कामुक नहीं है रजनी
अब कोई पहर नहीं कुंठित
तृण-लता-तरु-गुल्म मनोहर
साभिप्राय यौवन में गुंठित .
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जय हिन्द
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1 Comments
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