
शज़र से गिरकर
लुटा करता है परिंदा .
मुझे शाख पर से
उठाकर ले गया दरिंदा.
साँसों की डोरियाँ काट डालीं जुबाँ से,
अब फूँक मार-मार के रखता है ज़िन्दा.
कब्र के भीतर इक आवाज़ सुनी मैंने,
कोई इस सब के लिए सिर्फ है शर्मिंदा.
उसका बयान था आगे से एहतियात रखेंगे ,
और हम इश्क में पड़ेगे ही नहीं आइन्दा.
हमने बारिशें उसकी गलियों में काटीं भीगकर,
उसने छतरी वापस करने भेजा एक नुमाइंदा.
चाँद झड़ गया खुदगर्जी में आसमानों से ,
अब क्या करूँगा ढोकर जुगनुओं का पुलिंदा.
शमां मकबूल रही रंगीन शबदारों के बीच,
परवाना ख्व़ाब संजोता रहा चुनिन्दा .
कागज़ के फूल बहुत अज़ीज़ हो गए ज़माने को,
खुशबू के कायल हम सरीखे यूँ ही हुए रिंदा .
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जय हिन्द
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