जी में धधकती बेला है


kavyapanthika


जी में धधकती बेला है .

जीवन बहुत अकेला है .

पहुँच गए किस कोने में 

छोड़ सल्ल बिछोने  में 

बस स्मृतियों का रेला है .

अनुभव अनुगामी होकर 

हृदय जा रहे ले ढोकर 

रह-रहकर तुमने ठेला है .

मन में उत्सव संचारी

इसका प्रमाण तू बनजा री  

खेल अनोखा खेला है .

रिक्त चिन्ह को पाट दिया 

अवगुंठित रोध  को काट दिया 

है अवशेष किंतु जो झेला  है .

सोच नहीं जाती झूले पर 

छूना है तो छूले पर 

प्रयोजन नया नवेला है .

साये में रहना कच के 

बहुतेरों से तुम बच के 

दृष्टिपात का मेला है .

आभासी हो गया शरीर

शामिल हो गई मन में पीर 

ह्रदयघात अलबेला है . 

जी में  धधकती  बेला है .

जीवन बहुत अकेला है.

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जय हिन्द

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